उच्च शिक्षा – लोगों की पहंुच से बाहर
पिछले कुछ सालों से यह देखने में आ रहा है कि उच्च शिक्षा के विषय पर राज्य की नीति बदल रही है। स्कूलों से पास कर निकलने वाले बच्चों के लिये कम
कीमत पर अच्छी उच्च शिक्षा दिलाने में राज्य जो समर्थन देता था, वह धीरे धीरे हटा दिया जा रहा हैं। इसके साथ ही साथ, अपने बच्चों को अच्छी उच्च दिलाने के तमाम मेहनतकशों के सपने भी खत्म हो रहे हैं। मौजूदे विश्वविद्यालयों, जो वैसे भी इस लक्ष्य को पूरा करने में कामयाबी से कहीं दूर थे, अब उन्हें जान बूझकर बिगड़ने दिया गया है। दिल्ली, मुम्बई, चैन्नई, कलकत्ता आदि जैसे बड़े शहरों में जाने माने विश्वविद्यालयों पर इस नीति का असर देखा जा रहा है। कालेजों की फ़ीस 200 प्रतिशत से 300 प्रतिशत तक बढ़ा दी गई हैं। मजदूर वर्ग तथा मध्यम वर्ग के बच्चे अब ये ऊंची फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं। शिक्षक अपने कम वेतनों से दुखी हैं क्योंकि इससे उनके अपने जीवन स्तर घट रहे हैं। कालेजों में कक्षाओं और प्रयोगशालाओं की कमी है, पुस्तकालयों में पुस्तकों व पुस्तिकाओं की कमी है, छात्रावास तथाा यातायात सुविधायें बहुत कम हैं और सभी विश्वविद्यालयों में लापरवाही और अपेक्षा देखने में आती है। विभिन्न सरकारें व राजनीतिक पार्टियों की नीतियों की वजह से उच्च शिक्षा की यह हालत है।
इसका यह मतलब है कि कम आमदनी वाले परिवारों के बहुत थोड़े बच्चे उच्च शिक्षा ले पाते हैं। फिर, जो कालेज जा भी पाते हैं, वे एक ऐसी डिग्री लेकर निकलते जो असली जिन्दगी में कोई माइना नहीं रखता।
क्या इसका यह मतलब है कि अमीरों के बच्चे, आईÛएÛएसÛ अफसरों के बच्चे, मन्त्रियों या उच्च फौजी अफसरों के बच्चे आदि अच्छी उच्च शिक्षा नहीं पाते हैं? नहीं,, ऐसा नहीं हैं इन बच्चों में से अधिकतर अमरीकी या दूसरे विदेशाी विश्वविद्यालयों में जाकर पढ़ते हैं। देश में उच्च शिक्षा के संकट का उन पर कोई असर नहीं पड़ता है। उनमें से जो देश में उच्च शिक्षा लेना चाहते हैं, उनके लिये काफी सारे उच्च वर्गीय कालेज व संस्थान हैं, जिनमें उनका स्वागत होता है पर जिनके दरवाजें गरीब छात्रों के लिये बंद है क्योंकि उनकी फीस बहुत ज्यादा है या उनमें प्रवेश करने के लिये बहुत कठिन शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं।
ऐसी उच्च शिक्षा की व्यवस्था जो मजदूर वर्ग व मध्यम वर्ग के नौजवानों के साथ भेदभाव करती है, इसका कोई भविष्य नहीं हो सकता। इससे अमीरों और गरीबों के बीच का अन्तर और बढ़ जायेगा। अगर उच्च शिक्षा सब को दिलाना है, सिर्फ कुछ खास बच्चों को ही नहीं, तो उच्च शिक्षा के लिये सरकारी समर्थन अनिवार्य है। सरकार उच्च शिक्षा के समर्थन रोक देना इस बहाने उचित ठहराती है कि प्राथमिक शिक्षा पर ज्यादा खर्च होना चाहिये। पर प्राथमिकी शिक्षा पर खर्च करने का यह मतलब कैसे है कि उच्च शिक्षा में कटौती करनी चाहियें? राज्य को प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों पर खर्च करना चाहिये। इसके लिये पैसे सरकार के उन क्षेत्रों के खर्चंे में से निकालना चाहिये जिनके फायदे सिर्फ परजीवी सरमायदारों को ही होते हैं।
हर साल, लाखों नौजवान देश भर के कालेजों व विश्वविद्यालयों में भर्ती होने के लिये चक्कर काटते हैं। उनके तथा उनके मां-बाप के यही सपने हैं कि उन्हें अच्छी उच्च शिक्षा मिलेगी है और फिर उसके बाद नौकरी मिलेगी। पर दुख की बात तो यह है कि उनमें से बहुत कम छात्रों को अच्छी नौकरी मिलेगी। यह आर्थिक व्यवस्था की कमी है, न कि उच्च शिक्षा चाहने वालों की “़परन्तु आज बहुत प्रचार किया जा रहा है कि ”नौकरी के अनुसार प्रशिक्षण“ की जरूरत है। इस प्रकार सरकार नौजवानों को उच्च शिक्षा न लेने का संदेश दे रही है और शिक्षित नौजवानों को पर्याप्त मात्रा में उचित नौकरियां दिलाने की अपनी जिम्मेदारी से हाथ धो रही हैं। तो असलियत में छात्रों को दो बार लूटा जाता है-पहले
एक घटिया किस्म की कालेज या विश्वविद्यालय शिक्षा के जरिये और फिर निजी धंधों, ट्यूटोरियल, पालिटेकनिक, वोकेशनल कोर्स आदि के जारिये, जो कि दस गुना फीस लेते हैं और उन्हें नौकरियां दिलाने के झूठे वायदे करते हैं।
बर्तानवी बस्तीवादियों ने इस देश में अपने खुदगर्ज हितों के लिये विश्वविद्यालय बनाये। उनका इरादा था कुछ हिन्दोस्तानियों को प्रशिक्षण देकर प्रशासन आदि में नीचे दर्जे की नौकरियां दिलाना। आज के हुक्मरानों का भी वही खुदगर्ज और तंग नज़रिया है। परन्तु हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग उच्च शिक्षा पर ऐसा नज़रिया नहीं रख सकता है। एक व्यापक उच्च शिक्षा व्यवस्था किसी भी प्रगतिशील और संस्कृतिपूर्ण समाज की निशानी है। सभी प्रकार के पिछड़ेपन से समाज का उद्धार करने और जनता की जागरुकता व सांस्कृतिक स्तर को बढ़ाने के लिये उच्च शिक्षा जरूरी है। मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के बच्चों को, बिना किसी भेदभाव किये, उच्च शिक्षा मिलनी चाहिये, क्योंकि उन्हें समाज की प्रगति और उद्धार में दिलचस्पी है। सब के लिये शिक्षा, यह राज्य की राजनीति होनी चाहिये। जो राज्य ऐसा नहीं दिलवा सकता है, उसें राज्य चलाने का कोई हक नहीं है।
अर्थव्यवस्था को जनता की सेवा में कैसे लाया जा सकता है?
आज़ादी के 51 साल बाद, आधी से अधिक आबादी को दिन में दो रोटी नसीब नहीं है। सर पर छत नहीं, स्वच्छ वातावरण, पीने का पानी, शिक्षा या स्वास्थ्य नहीं मिलता है।
हमें बताया जाता है कि देश का विकास और प्रगति हो रही है। परन्तु इस प्रगति में सिर्फ अमीर ही और अमीर हो रहे हैं, अमीरों की उन्न्ाति हो रही है जबकि गरीब और अधिक गरीब होते जा रहे हैं और उनकी गरीबी बढ़ रही है। बाज़ार में छोटे उत्पादकों की तबाही मच रही है। दिन ब दिन फैक्टरियाँ बंद हो रही हैं, सैकड़ों बेघर हो रहे हैं, खाद्य व दूसरी जरूरी सामग्रियों की कीमतें आसमान को छूने जा रही हैं, स्कूल फीस व स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्चा बस के बाहर होता जा रहा है।
इस हालत में खुशी की बात है कि कमेटी फाॅर पीपल्स एम्पावरमेंट पुरजोर प्रयास कर रही है कि कैसे अर्थव्यवस्था और राजनीतिक सत्ता जनता की सेवा में और जनता के हाथों में लायें। इन विषयों को लेकर दिल्ली में यह कमेटी एक विचार गोष्ठी आयोजित कर रही है।