प्रभुसत्ता और अर्थव्यवस्था
1 जुलाई-15 जुलाई, 1998 के मजदूर एकता लहर अंक मंे आपने “हिन्दोस्तान साहूकारों के चंगुल में” इस लेख में, अपनी अर्थव्यवस्था पर कर्जे का जो बोझ है उस पर बहुत अच्छी तरह से प्रकाश डाला है। इस कर्जे के बोझ के लिये तो सिर्फ वे पूंजीपति एवं हुक्मरान ही जिम्मेवार है, जिनके हाथों में अपने मुल्क की प्रभुसत्ता पिछले 50 सालों से है, एवं जिन्होंने इस कर्जे से अरबों की निजी पंूजी बटोर ली है। हम हिन्दोस्तान के आम मेहनतकशों को तो उससे तनिक भी फायदा नहीं हुआ है।
उसी अंक के दूसरे एक लेख “प्रभुसत्ता और अर्थव्यवस्था” में बताया है कि जब तक अपने मुल्क से भूख, निरक्षरता, बीमारी, गरीबी आदि नहीं दूर होती, तब तक विदेशी कंपनियों
एवं एजेंसियों का कर्जा चुकाने मंे कोई पैसा नहीं खर्च होना चाहिये। यह विचार भी पूरी तरह से उचित है। कौन मां-बाप अपने बच्चों को भूखा रखकर साहुकार का कर्जा पहले चुकायेगा, भला!
इस पहलू पर जब भी चर्चा छिड़ती है, तब यह कहकर विरोध किया जाता है कि “यह नामुमकिन है, क्योंकि अमरीका आदि साहुकारों के मुकाबले हमारा देश कमजोर है।” या फिर यह कहकर विरोध किया जाता है कि “अगर हम पिछले कर्जे नहीं चुकायेंगे तो फिर भविष्य में हमें दूसरा कोई कर्जा नहीं देगा।” मगर विरोधियों की इन दोनों बातो में कोई दम नहीं है।
अगर हम कर्जा चुकाने से इन्कार करते है तो स्वाभाविक ही करीब 75000 करोड़ रुपयों की राशी बच जायेगी केवल एक ही साल में! इतनी बड़ी राशी से हम क्या, कुछ नहीं कर सकते! पूरे देश का नक्शा ही बदल जायेगा दो-तीन सालों में! क्योंकि अगर हम इस
धन को हमारे देश के मेहनतकशों की भूख-बीमारी दूर करने में लगाकर, सभी मेहनतकशों को उत्पादक कामों में लगाये, तो दो-तीन सालों में ही इस राशी से कई गुना ज्यादा धन-संपत्ती का निर्माण होगा। और फिर भविष्य में किसी साहुकार के सामने हाथ फैलाने की नौबत ही नहीं आयेगी।
इस तरह से विदेशी कर्जा चुकाने के बजाय, अपनी जनता की खुशहाली में अगर हम खर्च करें, तो सभी जनता पूरे दिलों जान से देश की किसी भी संकट से रक्षा करेगी। फिर सिर्फ अमरीका ही क्यों, दुनिया भर की सभी साम्राज्यवादी ताकतें एक होकर भी हमारे देश का बाल तक बांका नहीं कर सकती।
मगर इस तरह के कदम सरमायदारों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली सरकारें खुद नहीं उठायेंगी। हम सब आम लोगों को मिलकर सरकार को यह कदम उठाने के लिये मजबूर करना होगा।
जहां तक मुझे मालूम है, सोवियत रूस में 1917 के इंकलाब के उपरांत, जार एवं पहली सरकारों ने लिये कर्जे चुकाने से, मजदूर वर्ग की सत्ता ने इन्कार किया था। दुनिया के एवं अपने देश के इतिहास में भी इस तरह के उदाहरण जरूर होंगे। अगर ऐसे उदाहरणों के बारे में “मजदूर एकता लहर” में विस्तृत रूप से लिखा जाये, तो उससे सभी पाठकों को प्रोत्साहन मिलेगा तथा आंदोलन में “कर्जा ना चुकाने की मांग” प्रस्थापित होने में मदद होगी।
पांच दशकों तक कम पंूजी निवेश
आजादी के बाद से, शिक्षा में पूंजी निवेश देश व विदेश के बडे़ सरमायदारों और राजनीतिक दबावों द्वारा निर्धारित किया गया हैं। शिक्षा में संपूर्ण पूंजी निवेश और अलग अलग क्षेत्रों में, यानि प्राथमिक, माध्यमिक, तकनीकी व उच्च शिक्षा में पूंजी निवेश इस आधार पर किये गये हैं कि उससे बड़े पूंजीपतियों के इरादे पूरे होंगे या नहीं।
हिन्दोस्तान की शिक्षा व्यवस्था में बहुत कम पंूजी लगाई गई है। पूंजी निवेश की गति 1950 से आज तक घटती रही है। इस समय हिन्दोस्तानी सरकार राष्ट्रीय आमदनी का 3.5 प्रतिशत शिक्षा पर लगाती है। यह सभी छात्रों को अच्छी शिक्षा दिलाने, 6-14 साल की उम्र के बच्चे को कम से कम 8 साल की प्राथमिक शिक्षा दिलाने और माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक व उच्च शिक्षा दिलाने के लिये बहुत कम है।
शिक्षा विशेषज्ञों के अनुमानों के अनुसार हिन्दोस्तान जैसी कम साक्षरता वाले देशों में राष्ट्रीय आमदनी का 8 प्रतिशत शिक्षा पर लगाया जाना चाहिये। परन्तु हिन्दोस्तान में शिक्षा पर किया गया पूंजी निवेश राष्ट्रीय आमदनी का बहुत छोटा हिस्सा है, जो कि दुनिया के दूसरे विकासशील देशों से कम हैं।
पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा को दी गई प्राथमिकता घटती गई है। जब हिन्दोस्तान के सरमायदारों ने हिन्दोस्तानी राज्य का भार सम्भाला, तो उन्हें बर्तानवी बस्तीवादियों द्वारा बनायी गई शिक्षा व्यवस्था मिली, जो कि बस्तीवादियों के हितानुसार थी। नेहरू सरकार को दो उम्मीदें पूरी करनी थी- पहली, आम लोगों की उम्मीद कि उनके बेटों-बेटियों को मुफ्त शिक्षा दी जाये; दूसरी, बड़े पंूजीपतियों की उम्मीद कि शिक्षा व्यवस्था के जरिये प्रशिक्षित व कुशल श्रम शक्ति पैदा हो उनकी फैक्टरियों व दफ़्तरों के लिये, ताकि उनके उद्योग पनप सकें।
संविधान में एक नीति निदेशक तत्व डाल दिया गया कि “राज्य 10 साल के अन्दर सभी बच्चों को 14 वर्ष की उम्र तक मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा दिलाने की कोशिश करेगा”। शुरू की पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा और खास कर प्राथमिक शिक्षा का हिस्सा ज्यादा था;
शिक्षा पर खर्च का 56 प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पर था।
षिक्षा पर खर्च (राष्ट्रीय उत्पादन का प्रतिषत)
जैसे जैसे सरमायदार पनपते गये, उनका समाजवादी नकाब उतरता गया। दूसरी पंचवर्षीय योजना तक उच्च शिक्षा में ज्यादा पूंजी निवेश होने लगा, पर पूरी शिक्षा पर पूंजी निवेश
घटता गया। इसी समय खेती के बजाय औद्योगिक क्षेत्र में ज्यादा पैसा डाला जाने लगा।
पहली और चैथी पंचवर्षीय योजनाओं के बीच, प्राथमिक शिक्षा का हिस्सा 56 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक घट गया पर उच्च शिक्षा का हिस्सा 9 प्रतिशत से 25 प्रतिशत बढ़ गया। इसके बाद हालत पलट गई। शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या और 60 व 70 के दशकों के सामाजिक विद्रोहों ने सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने को मजबूर किया। तब से, उच्च शिक्षा पर खर्च को कम कर दिया गया और प्राथ्मिक शिक्षा का हिस्सा बढ़ाया गया परन्तु पूरी शिक्षा पर खर्च घटता गया।
आजकल, हिन्दोस्तान के हुक्मरानों पर बहुत घरेलू व अंतर्राष्ट्रीय दबाव है कि वे प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा पर ज्यादा खर्च करें। यह बहुत बेतुका लगने लगा है कि एक तरफ हिन्दोस्तानी सरमायदार परमाणु गिरोह और सुरक्षा परिषद में शामिल होना चाहते हैं और दूसरी तरफ हिन्दोस्तान दुनिया के निरक्षर देशों में गिना जाता है। इसलिये हमारे हुक्मरान विश्व बैंक के सिद्धांत को बढ़ावा दे रहे हैं कि उच्च शिक्षा में फायदा नहीं है, उस पर सरकारी खर्चा नहीं होना चाहिये। शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है।